Saturday, May 31, 2008

स्सिएंस एक्सप्रेस का एक पिक्टुरे

Sunday, December 30, 2007

Friday, November 30, 2007

खोजने होंगे विरोध के नए तरीके


एम्स के डाक्टरों ने विरोध का जापानी तरीका अपनाते हुए तीन घंटे अतिरिक्त काम करने का फैसला किया है। हमें खुले दिल से इस पहल का स्वागत करना चाहिए। गांधीगीरी के जरिए अंग्रेजों को अपनी सरजमीं से खदेड़ने वाले देश में हिंसा करके विरोध करना ठीक नहीं है। लोकतंत्र में सभी को अपनी राय रखने और असहमति व्यक्त करने का हक है। किसी को इस हक से महरूम करना लोकतंत्र की तौहीनी होगी। लेकिन हमें यह देखना होगा कि लोकतंत्र के तहत अभिव्यक्ति की आजादी कहीं आम लोगों के लिए मुसीबत का सबब तो नहीं बन रही। मसलन विरोध के नाम पर सड़क पर होने वाले प्रदर्शन, जाम व धरने आम आदमी को कितनी तकलीफ पहुंचाते हैं, इसका अंदाजा तो सहजता से लगाया जा सकता है।
नि:संदेह सरकार के जनविरोधी फैसलों व नीतियों की मुखालफत जरूरी है। हम चुपचाप जनता की चुनी हुई सरकार को जनता की अनदेखी नहीं करने दे सकते। लेकिन क्या हम कुछ इस तरह विरोध करते सकते हैं कि हमारी सरकार व प्रशासन विरोधी मुहिम में ज्यादा से ज्यादा लोग शामिल हों। आखिर लोकतंत्र में जनता ही तो असल ताकत है। फिर भला ऐसे विरोध का फायदा, जिससे लोगों को ही तकलीफ होने लगे। खासकर विरोध प्रदर्शन के नाम पर होने वाले सड़क जाम पर आम आदमी की सहानुभूति कभी भी प्रदर्शकारियों के साथ नहीं होती है। उलटे इससे तो उनकी भावनाएं सरकार के बजाए प्रदर्शकारियों के खिलाफ हो जाती हैं। इसी तरह डाक्टरों की हड़ताल की वजह से आम आदमी को होने वाली परेशानी का अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है। ऐसे में एम्स के डाक्टर ओपीडी में मरीजों की अतिरिक्त घंटे सेवा कर अपनी मांग पर आसानी से लोगों की समर्थन जीत सकते हैं।
पिछले दिनों दिल्ली में देश भर से आए हजारों आदिवासी लोगों ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर एक मिसाल कायम की। बिना हिंसा व बगैर किसी को नुकसान पहंुंचाए आदिवासी देश की शीर्ष सत्ता तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहे। इससे पहले अन्य मसलों पर लोगों ने राजधानी में मोमबत्ती जुलूस निकालकर अपनी राय जाहिर की। देश में मसलों की कमी नहीं है। ज्यादतियों को चुपचाप सहन करना कायरता है। हमें आवाज उठानी ही होगी। लेकिन साथ ही खोजने होंगे विरोध के नए तरीके।


मीना त्रिवेदी

Tuesday, November 27, 2007

चौराहे की रेड लाइट



सुबह-सबेरे बस्ती से निकलती नन्हों की टोली
अम्मा-बापू से मिलजुल करती हंसी ठिठोली
थोडी देर में चौराहे की रेड लाइट पर जमेगी इनकी महफिल
रस्सी पर करतब दिखाएगी छुटकी
छम छम छम छम नाचेगी कजरी
मटक-मटक कर ढोल बजाएगा माझी
राहगीरों को सलाम बजा कर पैसे मांगेंगे पिन्नी, सांची
ऐसे ही गुजर जाएगा आज का दिन

अम्मा कहती जरा नाच के दिखा
कहता बापू जरा ठुमके लगा

ऐसे ही किसी दिन खेल-खेल में
पहले छुटकी, फिर पिन्नी की होगी विदाई

और एक दिन किसी और बस्ती से निकलेगी
किन्हीं और नन्हों की टोली
चौराहे की रेड लाइट पर सजेगी महफिल
एक नन्हें को आंखों से इशारे दे
छुटकी कहेगी जरा नाच के दिखा
एक नन्हीं को कहेगी पिन्नी जरा ठुमके लगा
थिरक उठेंगे दो जोडी नन्हें पांव
नाचेंगे, गाएंगे और ढोल बजाएंगे
छुटकी का बेटा और पिन्नी की बेटी

और किसी और दिन
किसी और बस्ती से निकलेगी
किन्हीं और नन्हों की टोली

मीना त्रिवेदी

Sunday, November 25, 2007

क्यों नहीं रह सकतीं तसलीमा हमारे यहां


आजकल तसलीमा नसरीन को लेकर देश में हंगामा मचा है। राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र तक उनको पनाह देने से बच रहा है। उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है मानो वह कोई अपराधी हों। तसलीमा लंबे समय से यहां रह रही हैं। भारत के लोग उनकी लेखनी से भलीभांति परिचित हैं। किसी लेखक के विचारों से सहमत होना या असहमत होना तो हमारा अधिकार है। लेकिन अचानक ऐसा क्या हो गया कि पश्चिम बंगाल सरकार को तसलीमा को कोलकाता छोडने के लिए कहना पड़ा। बंगाल के बाद राजस्थान सरकार और अब केन्द्र भी उन्हें सुरक्षा देने से कतरा रहा है। केन्द्र चाहता है कि तसलीमा भारत छोड़कर विदेश चली जाएं। आखिर ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी की कि केन्द्र सरकार उन्हें देश से बाहर का रास्ता दिखाने पर तुली है।
क्या हमारा देश भी कटृटरपंथ की राह पर चल पड़ा है। क्या हम एक लेखिका को सिर्फ इसलिए देश निकाला देना चाहते हैं कि उसने ऐसा कुछ लिख दिया जो हमें ठीक नहीं लगा। जिन्हें तसलीमा की लेखनी पर आपत्ति है तो वे उनके खिलाफ लिखकर उनका विरोध कर सकते हैं। फतवा जारी कर अपनी राय थोपना तो हमारी तहजीब नहीं। वैसे आज मौका तसलीमा की लेखनी पर बहस करने का नहीं बल्कि यह सोचने का है कि क्या हम इतने कमजोर हो चले हैं कि एक लेखिका की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं संभाल सकते। तसलीमा बार-बार कह रही हैं कि वह कोलकाता को अपना घर समझतीं हैं और वहीं रहना चाहती हैं। मैं बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि तसलीमा को भारत की नागरिकता मिलनी चाहिए।
धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाली माकपा आज चाहे जितने बहाने कर ले लेकिन देश की जनता उसकी हकीकत जान चुकी है। हम सब समझते हैं कि नंदीग्राम मसले पर चारो तरफ से घिरी पश्चिम बंगाल सरकार को सिर्फ राज्य के 27 प्रतिशत अल्पसंख्यक वोटों की चिंता है। कुछ सिरफिरे अल्संख्यकों की जिद पर तसलीमा को कोलकाता छोड़ने का फरमान जारी कर माकपा ने अपने खोखलेपन का सबूत दे दिया है। इस मसले पर केन्द्र का रवैया तो और भी दुखद है। सबको सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम वोटों की फिक्र है। राजनीति के दलदल में छटपटाती पार्टियों से यह उम्मीद करना भी बेमाने है कि वे निजी संकीर्णता से उपर उठकर देश की छवि के बारे में सोचेंगी। तसलीमा को विदेश जाने की सलाह देकर केन्द्र सरकार दुनिया को क्या संदेश देना चाहती है। क्या हम दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि हम कटटरपंथियों की धमकियों से डरकर फैसले करते हैं या फिर हमने नैतिक साहस खो दिया है और हमारा विशाल सुरक्षा अमला एक लेखिका की जान की हिफाजत करने में असक्षम है।

मीना त्रिवेदी

Friday, November 23, 2007

और खामोश हो गई उर्मिला बाई ़़़़़़़़़़़़़़

भोपाल के करीब बेतुल जिले में उर्मिला बाई ने डीएम आफिस के सामने जहर खाकर जान दे दी। उर्मिला घूंघट में मुंह छिपाकर सिर्फ घर-गृहस्थी संभालने वाली महिला नहीं थी। वह बडगांव की पंच थी। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना उसकी फितरत थी। दलित कोटे से जब वह गांव की पंच बनी तो उसके मन में लोगों की मदद करने का जज्बा था। जब उर्मिला को गांव के सरपंच यदुवंशी के भ्रष्टाचार के बारे में पता चला तो वह चुप न रह सकी। उसने सरपंच के खिलाफ शिकायत दर्ज की। यदुवंशी परिवार को गांव की एक दलित महिला का इस तरह मुखालफत करना बेहद नागवार गुजरा। यदुवंशी के बेटे काले ने उर्मिला से बदला लेने के लिए उसका बलात्कार किया। यह वाकया 21 जून, 2004 का है। इस घटना ने मानो उर्मिला की जिन्दगी ही बरबाद करके रख दी। पूरा गांव उस पर ताने कसने लगा। उसने पुलिस में शिकायत की, पर कोई कारZवाई नहीं हुई। आखिरकार निराश होकर वह अपने मायके चली गई। पिछले साल अपने ससुर की मौत के बाद उर्मिला फिर ससुराल लौट आई। लेकिन बलात्कारी काले को उर्मिला का गांव लौटना अच्छा नहीं लगा। वह एक बार फिर उसे सबक सिखाना चाहता था। लिहाजा उसने 25 सितंबर 2006 में उसका दोबारा बलात्कार किया। पहले की तरह इस बार भी पुलिस नििष्क्रय रही। लेकिन अब उर्मिला के सब्र का बांध टूट चुका था। उसने 9 अक्टूबर को ऐलान किया कि अगर एक महीने के भीतर उसके बलात्कारी को नहीं पकड़ा गया तो अपनी जान दे देगी। इसके बावजूद पुलिस ने कुछ नहीं किया। आखिरकार उर्मिला ने 21 नवंबर को डीएम आफिस के सामने जहर खाकर जान दे दी।
उर्मिला की मौत अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है। पहला तो यह है कि बलात्कार जैसी घटनाओं के प्रति आज भी हमारे समाज व पुलिस का रवैया नहीं बदला है। महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बीच आज भी समाज में बलात्कारी से ज्यादा पीिड़त महिला को शर्मिन्दगी झेलनी पड़ती है। दूसरा यह कि पुलिस पर नए कानूनों या सरकारी योजनाओं का कोई असर नहीं है। ऐसे में अपराधियों से ज्यादा पुलिस पर शिकंजा कसने की जरूरत है। सरकार चाहे लाख नए कानून बना ले, महिलाओं को उनका लाभ तभी मिलेगा जब पुलिस व प्रशासन मिलकर नए प्रावधानों को अमलीजामा पहनाएंगे।

मीना त्रिवेदी

परदेस जाने की बेबसी!

हर साल हजारों लोग हसीन सपने लेकर विदेश जाते हैं। कुछ घूमने तो कुछ नौकरी करने। जीवन में कुछ बेहतरीन हासिल करने के लिए परदेस जाने में कोई बुराई नहीं है। खासकर आज की ग्लोबल दुनिया में तो मानो सारा जहां ही अपना है। लक्ष्मी मित्तल और बॉबी जिंदल से हमें अपने सपनों को हकीकत में तब्दील करने की प्रेरणा मिलती है। लेकिन इस सुनहरी उड़ान की सतह पर कईयों की परदेस जाने की बेबसी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। हाल में आंध्र प्रदेश से खाड़ी देशों में नौकरी करने गए दर्जनों लोग मजबूर होकर खाली हाथ लौट आए। इनमें से कई तो इतने मायूस हुए कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। और कुछ अभी भी दुबई में अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हैं। ये वे लोग हैं जो गरीबी और बेरोजगारी की बेबसी के चलते विदेश का रुख करने को मजबूर हुए। जाहिर है गरीबों में परदेस जाकर आसमां छूने की ललक नहीं होती। ये तो बस अपने परिवार को भरपेट खाना, रहने के लिए सामान्य सा घर, बच्चों की पढ़ाई, मां-बाप की इलाज जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए साहूकार से कर्ज लेकर खाड़ी के देशों में जाते हैं, जहां वे मजदूरी, घरेलू नौकर, गाड़ी चलाने, दजीZ व होटल में बर्तन धोने जैसे काम करते हैं। वर्क वीजा ना होने की वजह से इनमें से तमाम लोगों का पुलिस व मालिकों द्वारा जमकर उत्पीड़न किया जाता है।

पिछले कुछ महीनों में यहां की सरकारों ने गैर कानूनी रूप से नौकरी करने आए विदेशी नागरिकों पर शिकंजा कसा है। लिहाजा ऐसे कर्मचारियों की हालत और खराब हुई है। मौके का फायदा उठाकर मालिक ऐसे कर्मचारियों को उनका मेहनताना नहीं देते हैं और विरोध करने पर जेल भेजने की धमकी देते हैं। जो लोग अपने गांवों से कर्ज लेकर परदेस गए थे वे भला किस मुंह से वापस आएं। उनके पास तो स्वदेश लौटने तक का किराया नहीं है तो भला वे साहूकार का कर्ज कैसे चुकाएंगे। और उनके परिवार के सपनों का क्या होगा जो यह आशा लगाए बैठे थे कि परिवार का मुखिया विदेश से खुब पैसा कमाकर लौटेगा। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना जिले में कुछ लोग हिम्मत कर किसी तरह लौट आए लेकिन साहूकारों ने उनका जीना मुश्किल कर दिया। हाल में यहां खाड़ी से लौटे तीन लोगों ने पेड़ से लटकर अपनी जान दे दी। काश वे परदेस न गए होते। काश उन्हें अपने देश में ही रोजी-रोटी कमाने का मौका मिला होता। खाड़ी से लौटे बाकी लोगों ने वहां रह रहे अन्य भारतीयों का जो हाल बताया वह सुखद नहीं है। ऐसे में यही सवाल उठता है कि आखिर ये लोग विदेश क्यों गए। जाहिर है उन्होंने खुशी-खुशी तो यह रास्ता नहीं चुना होगा। अगर उनके अपने शहर-गांव में रोजगार होता तो वे नौकरी करने बाहर कतई नहीं जाते। कम से कम कर्ज लेकर तो कतई नहीं। लोग बताते हैं कि गांव में सिचाई की व्यवस्था नहीं हैै। खेती बरबाद हो रही है। अशिक्षित व अनपढ़ लोगों के लिए रोजगार नहीं के बराबर हैं। ताज्जुब की बात तो यह है कि जब ये गरीब लोग विजटिंग वीजा लेकर परदेस जा रहे थे, तब हमारे आवर्जन अधिकारियों ने यह जानने की जहमत नहीं उठाई की आखिर जिनके पास खाने को नहीं है वे भला विदेश घूमने क्यों जा रहे हैं। दलालों ने अपनी कमाई के लिए इन गरीबों को बेवकूफ बनाया और उन्हें ऐसे गर्त में धकेला कि उनका जीवन भारी मुश्किलों से घिर गया।

ब्रिटेन में भी इन दिनों भारत से नौकरी के लिए आने वालों पर लगाम कसने की तैयारी हो रही है। ब्रिटेन के आवर्जन मंत्रालय के मुताबिक, बड़ी संख्या में भारतीय गैर कानूनी रूप से वहां नौकरी के लिए जाते हैं। अगले महीने ब्रिटेन का एक प्रतिनिधिमंडल इस मसले पर चर्चा के लिए नई दिल्ली आ रहा है। ऐसे मेें सवाल यही उठता है कि विदेश जाकर नौकरी करने की ऐसी भी भला क्या मजबूरी कि बाहरी मुल्क हमसे तौबा करने लगें। वह दिन कब आएगा जब विदेशी नागरिक भारत में नौकरी करने में फख्र महसूस करेंगे और हम भारतीय पराए देश जाने के बजाय अपनी खुद की धरती पर शान से तरक्की के किस्से गढ़ेंगे।

मीना त्रिवेदी